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कौशिक बसु का कॉलम:लोकतंत्र को बड़ा खतरा युद्ध नहीं विषमताओं से होता है

जनवरी, 1934 में न्यूयॉर्क टाइम्स में हेरोल्ड कैलेंडर का एक लेख प्रकाशित हुआ, जो नाजी जर्मनी में तेजी से दिखाई दे रही एक नई परिघटना ‘ग्लाइख्शालटुंग’ को लेकर था। इसका शाब्दिक अनुवाद है- ‘समन्वय’। लेकिन इस शब्द के वास्तविक मायने कहीं ज्यादा स्याह थे- जर्मन समाज का नाजीकरण। कैलेंडर का यह लेख लोकतंत्र के पतन और तानाशाही के उदय को लेकर सबसे दूरदर्शी चेतावनियों में से एक साबित हुआ था। ईसा पूर्व पांचवी सदी में एथेंस में जन्मा लोकतंत्र का विचार मानवता के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। 18वीं और 19वीं सदी में इसने अमेरिका और 20वीं सदी में भारत में जड़ें जमाईं। लेकिन अपनी व्यापकता और मजबूती के बावजूद लोकतंत्र हमेशा से ही निष्कवच रहा है। हम अकसर सोचते हैं कि युद्ध, तख्तापलट आदि लोकतंत्र के लिए बड़े खतरे हैं। लेकिन कैलेंडर का लेख हमें बताता है कि लोकतांत्रिक पतन के लिए अचानक से कोई बड़ा झटका जरूरी नहीं। चुनावी लोकतंत्र भी धीरे-धीरे, कदम-दर-कदम अधिनायकवाद के उस स्तर तक चला जाता है, जहां से वापसी संभव नहीं होती। कैलेंडर के लेख ने हिटलर के जर्मनी में चल रही घटनाओं को एक परिप्रेक्ष्य दिया था। वास्तव में, 1934 तक जर्मनी के नाजीकरण की प्रक्रिया काफी आगे बढ़ चुकी थी। पहले जर्मनी के संघीय राज्य अपनी सम्प्रभुता खोकर नाजी नियंत्रण में आए और फिर विपक्षियों और असहमतों को चुप करा दिया गया। यह व्याधि जर्मनी के बौद्धिक जगत, विश्वविद्यालयों और शोध केंद्रों तक फैल गई। कैलेंडर बताते हैं कि कितनी सरलता से नाजियों ने सभी सांस्कृतिक संस्थानों पर अपनी वैचारिक एकरूपता थोप दी। आधुनिक कला को विकृत बताकर खारिज कर दिया गया था। हालांकि विज्ञान को ऐसी किसी एकरूपता में ढालने पर वे हिचकते थे। आखिरकार पृथक से कोई जर्मन या आर्य गणित कैसे हो सकता था? लेकिन बर्लिन विश्वविद्यालय के कुछ चापलूस गणितज्ञों ने खुद को इसके लिए भी राजी कर लिया था। इस प्रकार जर्मन त्रासदी की पृष्ठभूमि तैयार हो गई। आज जब दुनियाभर के लोकतंत्र अधिनायकवाद की ओर खिसक रहे हैं तो कैलेंडर की चेतावनियां हमारे लिए पहले से भी अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती हैं। मसलन, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्तोर ओरबन और तुर्किये के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोगन निष्पक्ष चुनावों के जरिए सत्ता में आए और फिर अपनी ताकत को सीमित करने वाली संवैधानिक बाध्यताओं को ही कमजोर कर दिया। अमेरिका सहित कुछ अन्य बड़े देश भी इससे अछूते नहीं हैं। हालिया अनुभव बताते हैं कि राजनेता और उनके सहयोगी सत्ता में रहने के लिए राष्ट्रवाद का फायदा उठाते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिनायकवाद की ओर झुकाव हिंसा से ही शुरू नहीं होता। 2018 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द रिपब्लिक ऑफ बिलीफ्स’ में मैंने कहा था कि दमन उन व्यक्तिगत कृत्यों से शुरू होता है, जो दिखने में मामूली लगते हैं, लेकिन जब लोगों पर किसी विचारधारा के अनुरूप होने का सामाजिक दबाव पड़ने लगता है तो इसके परिणाम व्यापक हो जाते हैं। इससे सत्ताधारियों को स्वच्छंदता से काम करने की छूट मिलती है। 2022 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘स्पिन डिक्टेटर्स’ में सेर्गेइ गुरियेव और डैनियल ट्रीजमैन भी बताते हैं कि एक बार रोमानिया के तानाशाह निकोलाइ चाउशेस्कु ने अपने सुरक्षा प्रमुख से कहा था कि ‘हम राजनीतिक अपराधियों से छुटकारा पाने के कई तरीके खोज सकते हैं। हम उन्हें गबनकर्ता, अफवाह फैलाने वाला, ड्यूटी में लापरवाही बरतने वाला या कोई भी दूसरा आरोप लगाकर गिरफ्तार कर सकते हैं।’ बढ़ती विषमता से लोकतांत्रिक संस्थाएं तेजी से कमजोर होती हैं। जी-20 एक्स्ट्राऑर्डिनरी कमेटी ऑफ इंडिपेंडेंट एक्सपर्ट्स ऑन ग्लोबल इनइक्वेलिटी की ताजा रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के सबसे असमानता वाले देशों में लोकतंत्र खत्म होने का जोखिम सात गुना अधिक होता है। सोशल मीडिया के दबदबे वाली दुनिया में आय की असमानता अकसर आवाजों की असमानता में बदल जाती है। अति-धनाढ्य लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों और टीवी नेटवर्क पर कब्जा कर जनमत पर जकड़ मजबूत कर लेते हैं। अधिनायकवाद की ओर इस गिरावट को रोकने के लिए हमें लोकतंत्र के पिछले पतनों की पड़ताल करनी चाहिए। खासकर, दोनों विश्वयुद्धों के बीच के वर्षों और वाइमर गणराज्य की। एडम स्मिथ ने बताया था कि कैसे व्यक्तिगत पसंद से पूरी अर्थव्यवस्था आकार लेती है, उसी तरह से हमें समझना होगा कि कैसे रोजमर्रा के फैसले बड़े राजनीतिक बदलावों में तेजी लाते हैं। असमानता वाले देशों में लोकतंत्र खत्म होने का जोखिम सात गुना अधिक होता है। आय की विषमता अकसर आवाजों की विषमता में बदल जाती है। धनाढ्य लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों और टीवी नेटवर्क पर कब्जा कर लेते हैं।(@प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

गोवा में IFFI में धर्मेंद्र को श्रद्धांजलि:फिल्ममेकर राहुल रवैल बोले- मेहनत, लगन और इंसानियत के प्रतीक थे, उनका निधन इंडस्ट्री के लिए बड़ी क्षति

हिंदी सिनेमा के ही-मन धर्मेंद्र के निधन के बाद हर कोई उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। ऐसे में मंगलवार को गोवा में 56वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया (IFFI) में भी एक्टर को श्रद्धांजलि दी गई। फिल्ममेकर राहुल रवैल ने धर्मेंद्र को याद करते हुए कहा कि वह न सिर्फ एक महान अभिनेता थे, बल्कि बहुत अच्छे इंसान भी थे। राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर में धर्मेंद्र ने महेंद्र कुमार की भूमिका निभाई थी। इसे याद करते हुए राहुल रवैल ने कहा कि धर्मेंद्र बहुत मेहनती और लगनशील अभिनेता थे। वह हर दिन शाम की फ्लाइट से दिल्ली जाते, रात 5 बजे तक शूटिंग करते और फिर मुंबई लौटकर आदमी और इंसान की शूटिंग करते थे। रवैल ने बेताब (1983) की शूटिंग के बारे में भी बताया कि कश्मीर में फिल्म की शूटिंग के दौरान लोग धर्मेंद्र को देखने के लिए बड़ी संख्या में इकट्ठा होते थे। फिल्म रिलीज होने के बाद धर्मेंद्र हर दिन अपने बेटे की फिल्म गैटी सिनेमा में देखने जाते और फिर उत्साह से फिल्म पर चर्चा करते। वहीं, आज उनके बच्चे पिता की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। रवैल ने कहा कि धर्म जी ऐसे इंसान थे, जिनका जीवन जश्न मनाने लायक था, क्योंकि उन्होंने लोगों को बहुत खुशी दी। उनका निधन फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक बड़ी क्षति है। 24 नवंबर को हुआ था धर्मेंद्र का निधन बता दें, धर्मेंद्र 10 नवंबर को ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल में एडमिट होने से पहले 31 अक्टूबर को भी एडमिट हुए थे। तब भी उन्हें सांस लेने में दिक्कत हुई थी। हालांकि जब 10 नवंबर को वे भर्ती हुए तो परिवार के करीबी सूत्र ने दैनिक भास्कर से बातचीत में बताया था कि धर्मेंद्र की हालत नाजुक है और उनकी बेटियों अजेता-विजेता को भी विदेश से भारत बुला लिया गया है। तब बॉबी देओल भी अल्फा फिल्म की शूटिंग छोड़कर हॉस्पिटल पहुंचे थे। 12 नवंबर को उन्हें डिस्चार्ज कर दिया गया था। इसके बाद घर पर ही उनका इलाज चल रहा था। लेकिन फिर 24 नवंबर को उनका निधन हो गया।

दिल्ली में प्रदूषण और ठंड के बाद अब कोहरे ने भी दिखाया असर, जाने कैसा रहेगा मौसम

दिल्ली में प्रदूषण गंभीर स्थिति में हैं. दिन में गर्मी महसूस हो रही है. रातें ठंडी होने लगी है. बारिश होगी या नहीं, जानिए

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